हाँ... सच कहते हो तुम... कि... मुझे फर्क नहीं पड़ता..... हाँ.... मुझे फर्क नहीं पड़ता... बदल सा गया हूँ मैं..., कुछ सिमट सा गया हूँ अपने ही रंग में लिपट सा गया हूँ..... अब रूठ ता भी नहीं, ना हैरान होता हूँ.... ना तुझसे नाराज़ होता हूँ... , ना परेशान होता हूँ... बस तेरी बातें सुन मुस्कुरा देता हूँ..... तुझे शायद और ज़्यादा समझने की कोशिश करता हूँ... वो जो तुम कहते थे ना कि कितना बोलता हूँ मैं.. और हरदम पुरानी बातों को तराज़ू पर तोलता हूँ मैं...... खीज ता हूँ, झगड़ता हूँ, ताने उलाहने इतने देता हूँ मैं... तो मौन हुँ... ख़ामोश हूँ अब मैं.... बस सुनता हूँ.... तुम्हें और तुम्हारा ही आग़ोश में हूँ मैं.. अब छोड़ दिया है तुम्हें सताना, ज़बरन तुमसे कुछ सुनना और सुनाना.. हाँ... छोड़ दिया है तुम्हें देखना और मुस्कुराना... छोड़ दिया तुम्हारे संग वो गीत और ग़ज़ल गुनगुना... समझ चुका हूँ मैं...., दस्तूर-ए-मुहब्बत को.... और बिन थामे तेरा हाथ भी तेरे साथ चलता हूँ..... हर सांस के साथ तुझे महसूस करता हूँ... हाँ.... तुझमें ही जीता..., तुझमें ही पलता हूँ... पर ख़ामोश हूँ मैं... तुझे कुछ ना ...